अतिथेर्ञ्यः
(अष्टाध्यायी ५.४.२६ ) इति ञ्यप्रत्ययः। आतिथ्यस्य क्रिया तया शान्तो रथक्षोभेण यः परिश्रमः स यस्य स तं तथोक्तम्। राज्यमेवाश्रमस्तत्र मुनिम्। मुनितुल्यमित्यर्थः। तं दिलीपं राज्ये कुशलं पप्रच्छ। पृच्छतेस्तु द्विकर्मकत्वमित्युक्तम्। यद्यपि राज्य
शब्दः पुरोहितादिष्वन्तर्गतत्वाद्राजकर्मवचनः, तथाप्यत्र सप्ताङ्गवचनः, उपपन्नं ननु शिवं सप्तस्वङ्गेषु
(१।६०)इत्युत्तरविरोधात्। तथाह मनुः(९।१९४)- स्वाम्यमात्यपुरं राष्ट्रं कोशदण्डौ तथा सुह्रृत्। सप्तैतानि समस्तानि लोकेऽस्मिन्राज्यमुच्यते॥
इति। तत्र ब्रह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षत्रबन्धुमनामयम्। वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च ॥
(२।१२७) इति मनुवचने सत्यपि तस्य राज्ञो महानुभावत्वाह्ब्राह्मणोचितः कुशलप्रश्न एव कृत इत्यनुसंधेयम्। अत एवोक्तम्-राज्याश्रममुनिम्
इति ॥
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त | मा | ति | थ्य | क्रि | या | शा | न्त |
र | थ | क्षो | भ | प | रि | श्र | मम् |
प | प्र | च्छ | कु | श | लं | रा | ज्ये |
रा | ज्या | श्र | म | मु | निं | मु | निः |