नासाकण्ठमुरस्तालुजिह्वादन्तांश्च संस्पृशन् । षड्भ्यः संजायते यस्मात्तस्मात्षङ्ज्र इति स्मृतः ॥
स च तन्त्रीकण्ठजन्मा स्वरविशेषः। निषादर्पभागान्धारषड्जमध्यमधैवताः। पञ्चमश्चेत्यमी सप्त तन्त्रीकण्ठोत्थिताः स्वराः॥
इत्यमरः (अमरकोशः २.५.३३ ) । षड्जेनसंवादिनीः सदृशीः। तदुक्तं मातङ्गेन-षड्जं मयूरो वदति
इति। मनोभिरामा मनसः प्रियाः। के मूर्ध्नि कायन्ति ध्वनन्तीति केका मयूरवाण्यः। केका वाणी मयूरस्य
इत्यमरः (अमरकोशः २.५.३३ ) । ताः केकाः शृण्वन्तौ। इति श्लोकार्थः॥
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म | नो | भि | रा | माः | श्रृ | ण्व | न्तौ |
र | थ | ने | मि | स्व | नो | न्मु | खैः |
ष | ड्ज | सं | वा | दि | नीः | के | का |
द्वि | धा | भि | न्नाः | शि | ख | ण्डि | भिः |