क्रियार्थोपपदस्य-
(अष्टाध्यायी २.३.१४ ) इत्यादेना यज्ञसस्याभ्यां चतुर्थीं। एवमुभौ संपदो विनिमयेन परस्परमादानप्रतिदानाभ्यां भुवनद्वयं दधतुः पुपुषतुः। राजा यज्ञैरिन्द्रलोकमिन्द्रश्चोदकेन भूलोकं पुपोषेत्यर्थः। उक्तं च दण्डनीतौ-राजा त्वर्थान्समाहृत्य कुर्यादिन्द्रमहोत्सवम्। प्रीणितो मेघवाहस्तु महतीं वृष्टिमावहेत् ॥
इति ॥
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दु | दो | ह | गां | स | य | ज्ञा | य |
स | स्या | य | म | घ | वा | दि | वम् |
सं | प | द्वि | नि | म | ये | नो | भौ |
द | ध | तु | र्भु | व | न | द्व | यम् |