दण्डादिभ्यो यत्
(अष्टाध्यायी ५.१.३६ ) इति यप्रत्ययः। अदण्ड्यान्दण्डयन्राजा दण्ड्यन्। अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति॥
(मनु.८।१२८) इति शास्त्त्रवचनात्। तान् दण्ड्यानेव स्थित्यै लोकप्रतिष्ठायै दण्डयतः शिक्षयतः। प्रसूतये संतानायैव परिणेतुर्दारान्परिगृह्णतः। मनीषिणो विदुषः। दोषज्ञस्येति यावत्। विद्वान्विपश्चिद्दोषज्ञः सन्सुधीः कोविदो बुधः। धीरो मनीषो
इत्यमरः (अमरकोशः २.७.५ ) । तस्य दिलीपस्यार्थकामावपि धर्म एवाऽऽस्तां जातौ। अस्तेर्लङ्। अर्थकामसाधनयोर्दण्डविवाहयोर्लोकस्थापनप्रजोत्पादनरूपधर्मार्थत्वेनानुष्ठानादर्थकामावपि धर्मशेषतामापादयन्स राजा धर्मोत्तरोऽभूदित्यर्थः। आह च गौतमः(९।१०)-न पूर्वाह्णमध्यंदिनापराह्णानफलान्कुर्यात्। यथाशक्ति धर्मार्थकामेभ्यस्तेषु धर्मोत्तरः स्यात् ॥
इति ॥
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स्थि | त्यै | द | ण्ड | य | तो | द | ण्ड्या |
न्प | रि | णे | तुः | प्र | सू | त | ये |
अ | प्य | र्थ | का | मौ | त | स्या | स्तां |
ध | र्म | ए | व | म | नी | षि | णः |