सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
ज्ञान इति॥ ज्ञाने परावृत्तान्तज्ञाने सत्यपि मौनं वाङ्नियमनम्। यथाह कामन्दकः-नान्योपतापि वचनं मौनं व्रतचरिष्णुता
इति। शक्तौ प्रतीकारसामर्ध्येऽपि क्षमाऽपकारसहनम्। अत्र चाणक्यः-शक्तानां भूषणं क्षमा
इति। त्यागे वितरणे सत्यपि श्लाघाया विकत्थनस्य विपर्ययोऽभावः। अत्राह मनुः (४।२३६)-न दत्त्वा परिकीर्तयेत्
इति। इत्थं तस्य गुणा ज्ञानादयो गुणैर्विरुद्धैर्मौनादिभिः अनुबन्धित्वात्सहचारित्वात्। सह प्रसवो जन्म येषां ते सप्रसवाः सोदरा इवाभूवन्। विरुद्धा अपि गुणास्तस्मिन्नविरोधेनैव स्थिता इत्यर्थः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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ज्ञा | ने | मौ | नं | क्ष | मा | श | क्तौ |
त्या | गे | श्ला | घा | वि | प | र्य | यः |
गु | णा | गु | णा | नु | ब | न्धि | त्वा |
त्त | स्य | स | प्र | स | वा | इ | व |