उरःप्रभृतिभ्यः कप्
(अष्टाध्यायी ५.४.१५१ ) । व्यूढं विपुलं भद्रं स्फारं समं वरिष्ठं च
इचि यादवः। वृषस्य स्कन्ध इव स्कन्धो यस्य स तथा। सप्तम्युपमान-
इत्यादिनोत्तरपदलोपी बहुव्रीहिः। शालो वृक्ष इव प्रांशुरुन्नतः शालप्रांशुः। प्राकारवृक्षयोः शालः शालः सर्जतरुः स्मृतः।
इति यादवः। उञ्चप्रांशून्नतोदग्रोच्छ्रितास्तुङ्गे
इत्यमरः। महाभुजो महाबाहुः। आत्मकर्मक्षमं स्वव्यापारानुरूपं देहमाश्रितः प्राप्तः, क्षात्रः क्षत्रसंबन्धी धर्म इव स्थितः, मूर्तिमान् पराक्रम इव स्थित इत्युत्प्रेक्षा ॥
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व्यू | ढो | र | स्को | वृ | ष | स्क | न्धः |
शा | ल | प्रां | शु | र्म | हा | भु | जः |
आ | त्म | क | र्म | क्ष | मं | दे | हं |
क्षा | त्रो | ध | र्म | इ | वा | श्रि | तः |