सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तमिति॥ तं रघुवंशाख्यं प्रबन्धं सदसतोर्गुणदोषयोर्व्यव्यक्तेर्हेतवः कर्तारः सन्तः श्रोतुमर्हन्ति। तथा हि-हेम्नो विशुद्धिर्निर्दोषस्वरूपं श्यामिकापि लोहान्तरसंगर्गात्मको दोषोऽपि वाऽग्नौ संलक्ष्यते, नान्यत्र। तद्वदत्रापि सन्त एव गुणदोषविवेकाधिकारिणः, नान्य इति भावः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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तं | स | न्तः | श्रो | तु | म | र्ह | न्ति |
स | द | स | द्व्य | क्ति | हे | त | वः |
हे | म्नः | सं | ल | क्ष्य | ते | ह्य | ग्नौ |
वि | शु | द्धिः | श्या | मि | का | पि | वा |