सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
उदयमिति॥ वसुधाधिपा राजानः। उद्वहतीत्युद्वहो नायकः। पचाद्यच्। रघूणामुद्वहो रघुनायकः। तस्माद्रघुनायकादुदयं बृद्धिम्। अस्तमयं नाशं च। इत्युभयमानशिरे लेभिरे। कुतः? हि यस्मात्, स दशरथो निदेशमाज्ञामलङ्घ्यताम्। शोभनं हृदयमस्येति सुहृन्मित्रमभूत् सुहृद्दुर्हृदौ मित्रामित्रयोः
(अष्टाध्यायी ५.४.१५० ) इति निपातः। प्रतिगर्जतां प्रतिस्पर्धिनाम्। अय इव हृदयं यस्येति अयोहृदयः कठिनचित्तोऽभूत्। आज्ञाकारिणो रक्षति, अन्यान्मारयतीत्यर्थः ॥
छन्दः
द्रुतविलम्बितम् [१२: नभभर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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उ | द | य | म | स्त | म | यं | च | र | घू | द्व | हा |
दु | भ | य | मा | न | शि | रे | व | सु | धा | धि | पाः |
स | हि | नि | दे | श | म | ल | ङ्घ | य | ता | म | भू |
त्सु | हृ | द | यो | हृ | द | यः | प्र | ति | ग | र्ज | ताम् |
न | भ | भ | र |