सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
कुम्भेति॥ तस्यास्तमसाया अम्भसि कुम्भपूरणेन भव उत्पन्नः। पचाद्यच्। पटुर्मधुरः। उञ्चैर्गम्भूरो निनदो ध्वनिरुञ्चचारोदियाय। तत्र निनदे स नृपः। द्विरदबृंहितं शङ्कत इति द्विरदबृंहितशङ्की सन्, शब्देन शब्दानुसारेण तपतीति शब्दपातिनमिषुं विससर्ज। स्वागतावृत्तम् ॥
छन्दः
स्वागता [११: रनभगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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कु | म्भ | पू | र | ण | भ | वः | प | टु | रु | ञ्चै |
रु | ञ्च | चा | र | नि | न | दो | ऽम्भ | सि | त | स्याः |
त | त्र | स | द्वि | र | द | बृं | हि | त | श | ङ्की |
श | ब्द | पा | ति | न | मि | षुं | वि | स | स | र्ज |
र | न | भ | ग | ग |