सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अपेति॥ हिमकरश्चन्द्रः। अपतुषारतयाऽपगतनीहारतया विशदप्रभैर्निर्मलकान्तिभिः सुरतसङ्गपरिश्रमनोदिभिः सुरतसङ्गखेदहारिभिरंशुभिः किरणैः। मकरोर्जितकेतनम्। मकरेणोर्जितं केतनं ध्वजो यस्य तम्। लब्धावकाशत्वादुच्छ्रितध्वजमित्यर्थः। कुसुमचापं काममतेजयदशातयत्। तिज निशाने
इति धातोर्ण्यन्ताल्लङ्। सहकारिलाभात्कामोऽपि तीक्ष्णोऽभूदित्यर्थः ॥
छन्दः
द्रुतविलम्बितम् [१२: नभभर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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अ | प | तु | षा | र | त | या | वि | श | द | प्र | भैः |
सु | र | त | स | ङ्ग | प | रि | श्र | म | नो | दि | भिः |
कु | सु | म | चा | प | म | ते | ज | य | दं | शु | भि |
र्हि | म | क | रो | म | क | रो | र्जि | त | के | त | नम् |
न | भ | भ | र |