सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अजिनेति॥ ईश्वरो भगवानष्टमूर्तिरजिनं कृष्णाजिनं दण्डमौदुम्बरं बिभर्तीति तमजिनदण्डभृतम्। कृष्णाजिनं दीक्षयति। औदुम्बरं दीक्षितदण्डं यजमानीय प्रयच्छति
इति वचनात्। कुशमयी मेखला यस्यास्तां कुशमेखलाम्। शरमयी मौञ्जी वा मेखला। तया यजमानं दीक्षियती
ति विधानात्। प्रकृते कुशग्रहणं क्वचित्प्रतिनिधिदर्शनात्कृतम्। यतगिरं वाचंयमम्। वाचं यच्छति
इति श्रुतेः। मृगशृङ्गं परिग्रहः कण्डूयनसाधनं यस्यास्ताम्। कृष्णविषणया कण्डूयते
इति श्रुतेः। अध्वरदीक्षितां संस्कारविशेषयुक्तां तनुं दाशरथीमधिवसन्नधितिष्ठन्सन्। असमा भासो दीप्तयो यस्मिन्कर्मणि तद्यथा तथा अभासयद्भासयति स्म ॥
छन्दः
द्रुतविलम्बितम् [१२: नभभर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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अ | जि | न | द | ण्ड | भृ | तं | कु | श | मे | ख | लां |
य | त | गि | रं | मृ | ग | श्रृ | ङ्ग | प | रि | ग्र | हाम् |
अ | धि | व | सं | स्त | नु | म | ध्व | र | दी | क्षि | ता |
म | स | म | भा | स | म | भा | स | य | दी | श्व | रः |
न | भ | भ | र |