सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
दयितामिति॥ इदं मम हतजीवितं कुत्सितं जीवितं तावदादौ दयितामिन्दुमतीमन्वगादन्वगच्छद्यदि अन्वगादेव। यदि
अत्रावधारणे। पूर्वं मूर्च्छितत्त्वादिति भावः। तर्हि तया दयितया विना किं किमर्थं विनिवृत्तं प्रत्यागतम्? प्रत्यागमनं न युक्तमित्यर्थः। अत एवात्मकृतेन स्वदुश्चेष्टितेन निवृत्तिरूपेण प्रबलामधिकां वेदनां दुःखं सहतां क्षमताम्। स्वयंकृतापराधेषु सहिष्णुतैव शरणमिति भावः ॥
छन्दः
वियोगिनी []
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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द | यि | तां | य | दि | ता | व | द | न्व | गा |
द्वि | नि | वृ | त्तं | कि | मि | दं | त | या | वि | ना |
स | ह | तां | ह | त | जी | वि | तं | म | म |
प्र | ब | ला | मा | त्म | कृ | ते | न | वे | द | नाम् |