सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
स इति॥ स रघुः किलान्त्यमाश्रमं प्रव्रज्यामाश्रितः पुरान्नगराद्बहिरावसथे स्थाने निवसन्नविकृतेन्द्रियः। जितेन्द्रियः सन्नित्यर्थथः। अत एव स्नुषयेव वध्वेव पुत्रभोग्यया न स्वभोग्यया। श्रिया समुपास्य शुश्रूषितः। जितेन्द्रियस्य तस्य स्नुषयेव श्रियापिपुष्पफलोदकाहरणादिशुश्रूषाव्यतिरेकेण न किंचिदपेक्षितमासीदित्यर्थः॥ अत्र यद्यपि
ब्राह्मणाः प्रव्रजन्तिइति श्रुतेः।
आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद्गृहात्(६।३८) इति मनुस्मरणात्।
मुखजानामयं धर्मो यद्विष्णोर्लिङ्गधारणम्। बाहुजातोरुजातानामयं धर्मो न विद्यते॥इति निषेधाञ्च ब्राह्मणस्यैव प्रव्रज्या न क्षत्रियादेरित्याहुः। तथापि
यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेत्इत्यादिश्रुतेस्त्रैवर्णिकसाधारण्यात्।
त्रयाणां वर्णानां वेदमधीत्य चत्वार आश्रमाःइति सूत्रकारवचनात्।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यो वा प्रव्रजेद्गृहात्(मनु.१०।११७) इति स्मरणात्।
मुखजानामयं धर्मो वैष्णवं लिङ्गधारणम्। बाहुजातोरुजातानां त्रिदण्डं न विधीयते॥इति निषेधस्य त्रिदण्डविषयत्वदर्शनाञ्च। कुत्रचिद्ब्राह्मणपदस्योपलक्षणमाचक्षाणाः केचित्त्रैवर्णिकाधिकारं प्रतिपेदिरे। तथा सति
स किलाश्रममन्त्यमाश्रितः(८।१४)इत्यत्रापि कवनाप्ययमेव पक्षो विवक्षित इति प्रतीमः। अन्यथा वानप्रस्थाश्रमतया व्याख्याते
विदधे विधिमस्य नैष्ठिकं यतिभिः सार्धमनग्निमग्निचित्`(८।२५) इति वक्ष्यमाणेनानग्निसंस्कारेण विरोधः स्यात्; अग्निसंस्काररहितस्य वानप्रस्थास्यैवाभावात् इत्यलं प्रासङ्गिकेन ॥
छन्दः
वियोगिनी []
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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स | कि | ला | श्र | म | म | न्त्य | मा | श्रि | तो |
नि | व | स | न्ना | व | स | थे | पु | रा | द्ब | हिः |
स | मु | पा | स्य | त | पु | त्र | भो | ग्य | या |
स्नु | ष | ये | वा | वि | कृ | ते | न्द्रि | यः | श्रि | या |