सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
हृष्टेति॥ सेन्दुमती हृष्टापि पत्युः पौरुषेण प्रमुदितापि ह्रिया बिजिता यतोऽतः प्रियमजं साक्षात् स्वयं नाभ्यनन्दन्न प्रशशंस। किंतु नवैरम्भः षृषतैः पयोबिन्दुभिरभिवृष्टाऽभिषिक्ता स्थल्वकृत्रिमा भूमिः। जानपदकुण्डगोणस्थल-
(अष्टाध्यायी ४.१.४९ ) इत्यादिनाऽकृत्रिमार्थे ङीष्। अभ्रवृन्दं मेघसंघं मयूरकेकाभिरिव सखीनां वाग्भिरभ्यनन्दत् ॥
छन्दः
उपेन्द्रवज्रा [११: जतजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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हृ | ष्टा | पि | सा | वि | जि | ता | न | सा | क्षा |
द्वा | ग्भिः | स | खी | नां | प्रि | य | म | भ्य | न | न्दत् |
स्थ | ली | न | वा | म्भः | पृ | ष | ता | भि | वृ | ष्टा |
म | यू | र | के | का | भि | रि | वा | भ्र | वृ | न्दम् |
ज | त | ज | ग | ग |