सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तत इति॥ ततो धनुष्कर्षणे चापकर्षणे मूढहस्तमव्यापृतहस्तम्। एकस्मिन्नंसे पर्यस्तं स्रस्तं शिरस्त्राणां शीर्षण्यानां जालं समूहो यस्य तत्। ध्वजस्तम्भेषु निषण्णा अवष्टब्धा देहा यस्य तत्। नरदेवानां राज्ञां सेनैव सैन्यम्। चतुर्वर्ण्यादित्वात्स्वार्थे ष्यञ्प्रत्ययः। निद्राविधेयं निद्रापरतन्त्रं तस्थौ ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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त | तो | ध | नु | ष्क | र्ष | ण | मू | ढ | ह | स्त |
मे | कां | स | प | र्य | स्त | शि | र | स्त्र | जा | लम् |
त | स्थौ | ध्व | ज | स्त | म्भ | नि | ष | ण्ण | दे | हं |
नि | द्रा | वि | धे | यं | न | र | दे | व | सै | न्यम् |