वामं सव्ये प्रतीते च द्रविणे चातिसुन्दरे
इति विश्वः। व्यापारयन्नलक्ष्यत, शरसंधानादयस्तु दुर्लक्ष्या इत्यर्थः। सकृदाकर्णकृष्टा। योद्धुरस्याजस्य मौर्वी ज्या रिपून्घ्नन्तीति रिपुघ्नाः। तान्। अमनुष्यकर्तृके च
(अष्टाध्यायी ३.२.५३ ) इति क्प्रत्ययः। बाणान्सुषुव इव सुषुवे किमु। इत्युत्प्रेक्षा ॥
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स | द | क्षि | णं | तू | ण | मु | खे | न | वा | मं |
व्या | पा | र | य | न्ह | स्त | म | ल | क्ष्य | ता | जौ |
आ | क | र्ण | कृ | ष्टा | स | कृ | द | स्य | यो | द्धु |
र्मौ | र्वी | व | बा | णा | न्सु | षु | वे | रि | पु | घ्नान् |