तूणोपासङ्गतूणीरनिषङ्गा इषुधिर्द्वयोः
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.८८ ) । कवची वर्मधरो धनुष्मान् धनुर्धरो दृप्तो रणदृप्त एकवीरोऽसहायशूरः सोऽजो राजन्यकं राजसमूहम्। गोत्रोक्ष-
(अष्टाध्यायी ४.२.३९ ) इत्यादिना वुञ्प्रत्ययः। महावराहो वराहावतारो विष्णुः कल्पक्षये कल्पान्तकाल उद्वृत्तमुद्वेलमर्णवाम्भ इव। निवारयामास ॥
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र | थी | नि | ष | ङ्गी | क | व | ची | ध | नु | ष्मा |
न्दृ | प्तः | स | रा | ज | न्य | क | मे | क | वी | रः |
नि | वा | र | या | मा | स | म | हा | व | रा | हः |
क | ल्प | क्ष | यो | द्वृ | त्त | मि | वा | र्ण | वा | म्भः |