सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
प्रदक्षिणेति॥ तन्मिथुनमुदर्चिष उन्नतज्वालस्य कृशानोर्वह्नेः प्रदक्षिणप्रक्रमणात् प्रदक्षिणीकरणात्। मेरोरुपान्तेषु समीपेषु वर्तमानमावर्तमानम्। मेरुं प्रदक्षिणीकुर्वदित्यर्थः। अन्योन्यसंसक्तं परस्परसंगतम्। मिथुनस्याप्येतद्विशेषणम्। अहश्च त्रियामा चाहस्त्रियामं रात्रिंदिवमिव। समाहारे द्वन्दैकवद्भावः। चकासे दिदीपे ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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प्र | द | क्षि | ण | प्र | क्र | म | णा | त्कृ | शा | नो |
रु | द | र्चि | ष | स्त | न्मि | थु | नं | च | का | से |
मे | रो | रु | पा | न्ते | ष्वि | व | व | र्त | मा | न |
म | न्यो | न्य | सं | स | क्त | म | ह | स्त्रि | या | मम् |