सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
सेनेति॥ भोजस्य राज्ञो गोत्रापत्यं स्त्री भोज्या तामिन्दुमतीं प्रति व्यर्थमनोरथत्वाद्रूपेष्वाकृतिषु वेशेषु नेपथ्येषु च साभ्यसूया वृथेति निन्दन्तः। किंच विभाते प्रातःकाले ये ग्रहाश्चन्द्रादयस्त इव मन्दभासः क्षीणकान्तयः पृथिवीक्षितो नृपा अपि सेनानिविशान् शिबिराणि जग्मुः ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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से | ना | नि | वे | शा | न्पृ | थि | वी | क्षि | तो | ऽपि |
ज | ग्मु | र्वि | भा | त | ग्र | ह | म | न्द | भा | सः |
भो | ज्यां | प्र | ति | व्य | र्थ | म | नो | र | थ | त्वा |
द्रू | पे | षु | वे | शे | षु | च | सा | भ्य | सू | या |
त | त | ज | ग | ग |