तस्यापत्यम्
(अष्टाध्यायी ४.१.९२ ) इत्यण्प्रत्ययः। दृष्टिभिरापिबन्त्योऽतितृष्णया पश्यन्त्यो विषयान्तराण्यन्यान्विषयान्न जग्मुः। न विविदुरित्यर्थः। तथा हि-आसां नारीणां शेषेन्दियवृत्तिश्चक्षुर्व्यतिरिक्तश्रोत्रादीन्द्रियव्यापारः सर्वात्मना स्वरूपकार्त्स्न्येन चक्षुः प्रविष्टेव। श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि स्वातन्त्र्येण ग्रहणाशक्तेश्चक्षुरेव प्रविश्य कौतुकात्स्वयमप्येनमुपलभन्ते किमु। अन्यथा स्वस्वविषयाधिगमः किं न स्यादिति भावः ॥
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ता | रा | घ | वं | दृ | ष्टि | भि | रा | पि | ब | न्त्यो |
ना | र्यो | न | ज | ग्मु | र्वि | ष | या | न्त | रा | णि |
त | था | हि | शे | षे | न्द्रि | य | वृ | त्ति | रा | सां |
स | र्वा | त्म | ना | च | क्षु | रि | व | प्र | वि | ष्टा |