सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
शशिनमिति॥ तत्र स्वयंवरे समगुणयोस्तुल्यगुणयोरिन्दुमती-रघुनन्दनयोर्योगेन प्रीतिर्येषां ते समगुणयोगप्रीतयः पौराः पुरे भवा जनाः इयमजसंगतेन्दुमती मेघैर्मुक्तं शशिनं शरञ्चन्द्रमुपगता कौमुदी। अनुरूपं सदृशं जलनिधिमवतीर्णा प्रविष्टा जह्नुकन्या भागीरथी। तत्सदृशीत्यर्थः। इत्येवं नृपाणां श्रवणयोः कटु परुषमेकमविसंवादि वाक्यमेकवाक्यं विवव्रुः। मालिनीवृत्तम् ॥
छन्दः
मालिनी [१५: ननमयय]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ |
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श | शि | न | मु | प | ग | ते | यं | कौ | मु | दी | मे | घ | मु | क्तं |
ज | ल | नि | धि | म | नु | रू | पं | ज | ह्नु | क | न्या | व | ती | र्णा |
इ | ति | स | म | गु | ण | यो | ग | प्री | त | य | स्त | त्र | पौ | राः |
श्र | व | ण | क | टु | नृ | पा | णा | मे | क | वा | क्यं | वि | व | व्रुः |
न | न | म | य | य |