महाकुलादञ्खञौ
(अष्टाध्यायी ४.१.१४१ ) इति खञ्प्रत्ययः। अनेन पाण्ड्येन पाणौ त्वदीये विधिवद्यथाशास्त्रं गृहीते सति गुर्वी गुरुः। वोतो गुणवचनात्
(अष्टाध्यायी ४.१.४४ ) इति ङीष्। महीव रत्नैरनुविद्धो व्याप्तोऽर्णव एव मेखला यस्यास्तस्याः। इदं विशेषणं मह्यामिन्दुमत्यां च योज्यम्। दक्षिणस्या दिशः सपत्नी भव। अनेन सपत्न्यन्तराभावो ध्वन्यते ॥
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
अ | ने | न | पा | णौ | वि | धि | व | द्गृ | ही | ते |
म | हा | कु | ली | ने | न | म | ही | व | गु | र्वी |
र | त्ना | नु | वि | द्धा | र्ण | व | मे | ख | ला | या |
दि | शः | स | प | त्नी | भ | व | द | क्षि | ण | स्याः |