सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
विन्ध्यस्येति॥ विन्ध्यस्य नाम्नो महाद्रेः। तपनमार्गनिरोधाय वर्धमानस्येति शेषः। संस्तम्भयिता निवारयिता। निःशेषं पीत उज्झितः पुनस्त्यक्तः सिन्धुराजः समुद्रो येन सोऽगस्त्योश्वमेधस्यावभृथे दीक्षान्ते कर्मणि। दीक्षान्तोऽवभृथो यज्ञे
इत्यमरः (अमरकोशः २.७.२९ ) । आर्द्रमूर्तेः। स्नातस्येत्यर्थथः। यस्य पाण्ड्यस्य प्रीत्या स्नेहेन। न तु दाक्षिण्येन। सुस्नातं पृच्छतीति सौस्नातिकः। भवति। पृच्छतौ सुस्रातादिभ्यः
(वा.२९५३) इत्युपसंख्यानाट्टक् ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
---|
वि | न्ध्य | स्य | सं | स्त | म्भ | यि | ता | म | हा | द्रे |
र्निः | शे | ष | पी | तो | ज्झि | त | सि | न्धु | रा | जः |
प्री | त्या | श्व | मे | धा | व | भृ | था | र्द्र | मू | र्तेः |
सौ | स्ना | ति | को | य | स्य | भ | व | त्य | ग | स्त्यः |
त | त | ज | ग | ग |