सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अस्येति॥ दीर्घबाहारस्य प्रतीपस्याङ्कलक्ष्मीर्भव। एनं वृणीष्वेत्यर्थः। अनेनायं विष्णुतुल्य इति ध्वन्यते। माहिष्मती नामास्य नगरी। तस्या वप्रः प्राकार एव नितम्बः। तस्य काञ्चीं रशनाभूतां जलानां वेण्या प्रवाहेण रम्याम्। ओघः प्रवाहो वेणी च
इति हलायुधः। रेवां नर्मदां प्रासादजालैर्गवाक्षैः। जालं समूह आनायो गवाक्षक्षारकावपि
इत्यमरः। प्रेक्षितुं काम इच्छाऽस्ति यदि॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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अ | स्या | ङ्क | ल | क्ष्मी | र्भ | व | दी | र्घ | बा | हो |
र्मा | हि | ष्म | ती | व | प्र | नि | त | म्ब | का | ञ्चीम् |
प्रा | सा | द | जा | लै | र्ज | ल | वे | णि | र | म्यां |
रे | वां | य | दि | प्रे | क्षि | तु | म | स्ति | का | मः |
त | त | ज | ग | ग |