न्यायेनार्जनमर्थस्य वर्धनं पालनं तथा। सत्पात्रे प्रतिपत्तिश्च राजवृत्तं चतुर्विधम्॥
इति कामन्दकः। तस्मिन्वृत्ते स्थितस्य प्रजानामधिपतेर्नृपस्य भूः कामान्सूत इति कामसूर्यदि। सत्सूद्विषद्रह-
(अष्टाध्यायी ३.२.६१ ) इत्यादिना क्विप्। अत्र कामप्रसवने किं चित्रम्? न चित्रमित्यर्थः। किंतु तव प्रभावो महिमा त्वचिन्तनीयः। येन त्वया द्यौरपि मनीषितमभिलषितं दुग्धा। दुहेर्द्विकर्मकत्वादप्रधाने कर्मणि क्तः। प्रधानकर्मण्याख्येये लादीनाहुर्द्विकर्मणाम्। अप्रधाने दुहादीनां ण्यन्ते कर्तुश्च कर्मणः ॥
इति स्मरणात् ॥
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कि | म | त्र | चि | त्रं | य | दि | का | म | सू | र्भू |
र्वृ | त्ते | स्थि | त | स्या | धि | प | तेः | प्र | जा | नाम् |
अ | चि | न्त | नी | य | स्तु | त | व | प्र | भा | वो |
म | नी | षि | तं | द्यौ | र | पि | ये | न | दु | ग्धा |