सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
वसिष्ठेति॥ वसिष्ठस्य यन्मन्त्रेणोक्षणमभिमन्त्र्य प्रोक्षणं तज्जात्प्रभावात् सामर्थ्याद्धेतोः। उदन्वदाकाशमहीधरेषूदन्वत्युदधावाकाशे महीधरेषु वा। मरुत्सखस्य। मरुतः सखेति तत्पुरुषो बहुव्रीहौ समासान्ताभावात्। ततो वायुसहायस्येति लभ्यते। वारीणां वाहको बलाहकः। पृषोदरादित्वात्साधुः, तस्येव मेघस्येव। तद्रथस्य गतिः संचारो न विजघ्ने न विहता हि ॥
छन्दः
उपेन्द्रवज्रा [११: जतजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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व | सि | ष्ठ | म | न्त्रो | क्ष | ण | जा | त्प्र | भा | वा |
दु | द | न्व | दा | का | श | म | ही | ध | रे | षु |
म | रु | त्स | ख | स्ये | व | ब | ला | ह | क | स्य |
ग | ति | र्वि | ज | घ्ने | न | हि | त | द्र | थ | स्य |
ज | त | ज | ग | ग |