सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
नेति॥ स प्राग्ज्योतिषेश्वरो रुद्धार्कमावृतसूर्यम्। अधारावर्षं च तद्दुर्दिनं च धारावृष्टिं विना दुर्दिनीभूतम्। अस्य रघो रथवर्त्मरजोऽपि न प्रसेहे। पताकिनीं सेनां तु कुत एव प्रसेहे? न कुतोऽपीत्यर्थः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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न | प्र | से | हे | स | रु | द्धा | र्क |
म | धा | रा | व | र्ष | दु | र्दि | नम् |
र | थ | व | र्त्म | र | जो | ऽप्य | स्य |
कु | त | ए | व | प | ता | कि | नीम् |