सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
गृहीतेति॥ धर्मविजयी धर्मार्थविजयशीलः स नृपो रघुः। गृहीतश्चासौ प्रतिमुक्तश्च गृहीतप्रतिमुक्तः। तस्य महेन्द्रनाथस्य कालिङ्गस्य श्रियं जहार। धर्मार्थमिति भावः। मेदिनीं तु न जहार। शरणागतवात्सल्यादिति भावः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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गृ | ही | त | प्र | ति | मु | क्त | स्य |
स | ध | र्म | वि | ज | यी | नृ | पः |
श्रि | यं | म | हे | न्द्र | ना | थ | स्य |
ज | हा | र | न | तु | मे | दि | नीम् |