सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
द्विषामिति॥ काकुत्स्थो रघुस्तत्र महेन्द्राद्रौ द्विषां नाराचदुर्दिनं नाराचानां बाणाविशेषाणां दुर्दिनम्। लक्षणया वर्षमुच्यते। विषह्य सहित्वा सद्यथाशास्त्त्रं मङ्गलस्नात इव विजयमङ्गलार्थमभिषिक्त इव जयश्रियं प्रतिपेदे प्राप। यत्तु सर्वौषधिस्नानं तन्माङ्गल्यमुदीरितम्
इति यादवः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
---|
द्वि | षां | वि | ष | ह्य | का | कु | त्स्थ |
स्त | त्र | ना | रा | च | दु | र्दि | नम् |
स | न्म | ङ्ग | ल | स्ना | त | इ | व |
प्र | ति | पे | दे | ज | य | श्रि | यम् |