सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
पुण्डरीकेति॥ पुण्डरीकं सिताम्भोजमेवात्तपत्रं यस्य स तथोक्तः। विकसन्ति काशानि काशाख्यतृणकुसुमान्येव चामरणि यस्य स तथोक्तः। ऋतुः शरदृतुः पुण्डरीकनिभातपत्रं काशनिभचामरं तं रघुं विडम्बयामासानुचकार। तस्य रघोः श्रियं पुनः शोभां तु न प्राप। शोभासंपत्तिपद्मासु लक्ष्मीः श्रीरिव दश्यते
इति शाश्वतः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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पु | ण्ड | री | का | त | प | त्र | स्तं |
वि | क | स | त्का | श | चा | म | रः |
ऋ | तु | र्वि | ड | म्ब | या | मा | स |
न | पु | नः | प्रा | प | त | च्छ्रि | यम् |