वर्षाभ्यष्ठक्
(अष्टाध्यायी ४.३.१८ ) इति ठक्प्रत्ययः। धनुः संजहार। रघुर्जैत्रं जयशीलम्। जेतृ
शब्दात्तृन्नन्तात् प्रज्ञादिभ्यश्च
(अष्टाध्यायी ५.४.३८ ) इति स्वार्थेऽण्प्रत्ययः। धनुर्दधौ। हि यस्मात् ताविन्द्ररघू प्रजानामर्थस्य प्रयोजनस्य वृष्टिविजयलक्षणस्य साधने विषये पर्यायेणोद्यते कार्मुके याभ्यां तौ पर्यायोद्यतकार्मुकौ। पर्यायोद्यमविश्रमौ
इति पाठान्तरे पर्यायेणोद्यमो विश्रमश्च ययोस्तौ पर्यायोद्यमविश्रमौ। द्वयोः पर्यायकरणादक्लेशः इति भावः ॥
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वा | र्षि | कं | सं | ज | हा | रे | न्द्रो |
ध | नु | र्जै | त्रं | र | घु | र्द | धौ |
प्र | जा | र्थ | सा | ध | ने | तौ | हि |
प | र्या | यो | द्य | त | का | र्मु | कौ |