सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तत इति॥ ततो निषङ्गात्तूणीरादसमग्रं यथा तथोद्धृतं सुवर्णपुङ्खद्युतिभी रञ्जिता अङ्गुलयो येन तमिषुं प्रतिसंहरन्निवर्तयन्। नाप्रहरन्तं प्रहरेत्
इति निषेधादिति भावः। प्रियं वदतीति प्रियंवदः। प्रियवशे वदः खच्
(अष्टाध्यायी ३.२.३८ ) इति खच्प्रत्ययः। अरुर्द्विषट्-
(अष्टाध्यायी ६.३.६७ ) इत्यादिना मुमागमः। नरेन्द्रसूनू रघुः सुरेश्वरं प्रत्यवदत्। न तु प्राहरदिति भावः॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ |
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त | तो | नि | ष | ङ्गा | द | म | स | म | ग्र | मु | द्धृ | तं |
सु | व | र्ण | पु | ङ्ख | द्यु | ति | र | ञ्जि | ता | ङ्गु | लिम् |
न | रे | न्द्र | सू | नुः | प्र | ति | सं | ह | र | न्नि | षुं |
प्रि | यं | व | दः | प्र | त्य | व | द | त्सु | रे | श्व | रम् |
ज | त | ज | र |