सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
उपत्येति॥ दोहदं गर्भिणीमनोरथः। दोहदं दौर्हृदं श्रद्धा लालसं च समं स्मृतम्
इति हलायुधः। सा सुदक्षिणा दोहदेन गर्भिणीमनोरथेन दुःखशीलतां दुःखस्वभावतामुपेत्य प्राप्य यद्वस्तु वव्र आचकाङ्क्ष तदाहृतमानीतम्। भर्त्रेति शेषः। अपश्यदेव। अलभतेत्यर्थः। कुतः? हि यस्मादस्य भूपतेस्त्त्रिदिवेऽपि स्वर्गेऽपीष्टं वस्त्वनासाद्यमनवाप्यं नाभूत्। किं याञ्चया? नेत्याह-अधिज्यधन्वन इति। न हि वीरपत्नीनामलभ्यां नाम किंचिदस्तीति भावः। अत्र वाग्भटः (अ.हृ.शा।१।५२)पादशोफो विदाहोऽन्ते श्रद्धा च विवधात्मिका
इति। एतञ्च पत्मीमनोरथपूरणाकरणे दृष्टदोषसंभवात्, न तु राज्ञः प्रीतिलौल्यात्। तदुक्तम्(अ.हृ.शा.१।५३)-देयमप्यहितं तस्यै हिताय हितमल्पकम्। श्रद्धाविघाते गर्भस्य विकृतिश्च्युतिरेव वा
॥ अन्यत्र च-दोहदस्याप्रदानेन गर्भो दोषमवाप्नुयात्
इति ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
---|
उ | पे | त्य | सा | दो | ह | द | दुः | ख | शी | ल | तां |
य | दे | व | व | व्रे | त | द | प | श्य | दा | हृ | तम् |
न | ही | ष्ट | म | स्य | त्रि | दि | वे | ऽपि | भू | प | ते |
र | भू | द | ना | सा | द्य | म | धि | ज्य | ध | न्व | नः |
ज | त | ज | र |