सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अथेति॥ अथ गर्भधारणानन्तरम्। सुदक्षिणा। उपस्थितोदयं प्राप्तकालं भर्तुर्दिलीपस्येप्सितं मनोरथम्। भावे क्तः। पुनः सखीजनस्योद्वीक्षणानां दृष्टीनां कौमुदीमुखं चन्द्रिकाप्रादुर्भावम्। यद्वा, -कौमुदी नाम दीपोत्सपतिथिः। तदुक्तं भविष्योत्तरे-कौ मोदन्ते जना यस्यां तेनासौ कौमुदी मता
इति। तस्या मुखं प्रारम्भम्। अत एव केचित्-सखीजनोद्वीक्षणकौमुदीमहम्
इति पाठं पठन्ति। इक्ष्वाकुकुलस्य संतते रविच्छेदस्य निदानं मूलकारणम्। निदानं त्वादिकारणम्
इत्यमरः (अमरकोशः १.४.३० ) । एवंविधं दौर्हृदलक्षणं गम्भचिह्नं वक्ष्यमाणं दधौ। स्वहृदयेन गर्भहृदयेन च द्विहृदया गर्भिणी। यथाह वाग्भटः(अ.हृ.शा.१।५२)-मातृजं ह्यस्य हृदयं मातुश्च हृदयं तु तत्। संबद्धं तेन गर्भिण्याः श्रेष्ठं श्रद्धाभिमाननम्॥
इति। तत्संबन्धित्वाद्गर्भो दौर्हृदमित्युच्यते। सा च तद्योगाद्दौहृदिनीति। तदुक्तं संग्रहे(अ.२)-द्विहृदयां नारीं दौर्हृदिनीमाचक्षते
इति। अत्र दौर्हृदलक्षणस्येप्सितत्वेन कौमुदीमुखत्वेन च निरूपणाद्रूपकालंकारः। अस्मिन्सर्गे वंशस्थं वृत्तम्-जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ
इति लक्षणात् ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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अ | थे | प्सि | तं | भ | र्तु | रु | प | स्थि | तो | द | यं |
स | खी | ज | नो | द्वी | क्ष | ण | कौ | मु | दी | मु | खम् |
नि | दा | न | मि | क्ष्वा | कु | कु | ल | स्य | सं | त | तेः |
सु | द | क्षि | णा | दौ | र्हृ | द | ल | क्ष | णं | द | धौ |
ज | त | ज | र |