सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
स इति॥ स एवमुपायशून्यस्त्वं लज्जां विहाय निवर्तस्व। भवांस्त्वं गुरोर्दर्शिता प्रकाशिता शिष्यस्य कर्तव्या भक्तिर्येन स तथोक्तोऽस्ति। ननु गुरुधनं विनाश्य कथं तत्समीपं गच्छेयमत आह-शस्त्त्रेणेति। यद्रक्ष्यं धनं शस्त्त्रेणायुधेन। शस्त्त्रमायुधलोहयोः
इत्यमरः। अशक्या रक्षा यस्य तदशक्यरक्षम्; रक्षितुमशक्यमित्यर्थः। तद्रक्ष्यं नष्टमपि शस्त्रभृतां यशो न क्षिणोति न हिनस्ति। अशक्यार्थेष्वप्रतिविधानं न दोषायेति भावः ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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स | त्वं | नि | व | र्त | स्व | वि | हा | य | ल | ज्जां |
गु | रो | र्भ | वा | न्द | र्शि | त | शि | ष्य | भ | क्तिः |
श | स्त्त्रे | ण | र | क्ष्यं | य | द | श | क्य | र | क्षं |
न | त | द्य | शः | श | स्त्त्र | भृ | तां | क्षि | णो | ति |