क्कसुश्च
(अष्टाध्यायी ३.२.१०२ ) इति क्वसुप्रत्ययः। केसरिणं सिंहम्। सानुमत्तोऽद्रेः। धातोर्गैरिकस्य विकारो धातुमयी। तस्यामधित्यकायामूर्ध्वभूमौ। उपत्यकाद्रेरासन्ना भूमिरूर्ध्वमाधित्यका
इत्यमरः। उपाधिभ्यां त्यकन्नासन्नारूढयोः (अष्टाध्यायी ५.२.३४ ) इति त्यकन्प्रत्ययः। प्रफुल्लो विकसितस्तम्।
फुल्ल विकसनेइति धातोः पचाद्यच्।
प्रफुल्तम्इति तकारपाठे ञिफला विशरणे
इति धातोः कर्तरि क्तः। उत्परस्यातः
(अष्टाध्यायी ७.४.८८ ) इत्युकारादेशः। लोध्राख्यं द्रुममिव ददर्श॥
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ध | नु | र्ध | रः | के | स | रि | णं | द | द | र्श |
अ | धि | त्य | का | या | मि | व | धा | तु | म | य्यां |
लो | ध्र | द्रु | मं | सा | नु | म | तः | प्र | फु | ल्लम् |