सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
मुखेति॥ अन्येषां पुंसां सामान्या साधारणा न भवतीत्यनन्यसामान्या कलत्रेषु वृत्तिर्भोगरूपा यस्य स तथोक्तः। इममेवार्थं प्रतिपादयति-तरंग एवाधरस्तस्य दाने समर्पणे दक्षश्चतुरोऽसौ समुद्रो मुखार्पणेषु प्रकृत्या सख्यादिप्रेषणं विना प्रगल्भा धृष्टाः सिन्धूर्नदीः। सिन्धुः समुद्रे नद्यां च
इति विश्वः। स्वयं पिबति पाययतेच । तरंगाधरमिति शेषः। न पादम्याङ्यमा-
(अष्टाध्यायी १.३.७९ ) इत्यादिना पिबतेर्ण्यन्तान्नित्यं परस्मैपदनिषेधः। गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थ
- (अष्टाध्यायी १.४.५२ ) इत्यादिना सिन्धूनां कर्मत्वम्। दंपत्योर्युगपत्परस्पराधरपानमनन्यसाधारणमिति भावः ॥
छन्दः
उपेन्द्रवज्रा [११: जतजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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मु | खा | र्प | णे | षु | प्र | कृ | ति | प्र | ग | ल्भाः |
स्व | यं | त | रं | गा | ध | र | दा | न | द | क्षः |
अ | न | न्य | सा | मा | न्य | क | ल | त्र | वृ | त्तिः |
पि | ब | त्य | सौ | पा | य | य | ते | च | सि | न्धूः |
ज | त | ज | ग | ग |