सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अयमिति॥ गिरेः समीपेऽनुगिरम्। गिरेश्च सेनकस्य
(अष्टाध्यायी ५.४.११२ ) इति समासान्तषअटच्प्रत्ययः। सुजातः स तमालोऽयं दृश्यते। यस्य तमालस्य। शोभनो ग्धो यस्य तत्सुगन्धि। गन्धस्य-
(अष्टाध्यायी ५.४.१३५ ) इत्यादिनेकारः समासान्तः। प्रवालं पल्लवमादाय मया ते यवाङ्कुरवदापाण्डौ कपोले शोमीशोभते यः सोऽवतंसः परिकल्पितः ॥
छन्दः
उपेन्द्रवज्रा [११: जतजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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अ | यं | सु | जा | तो | ऽनु | गि | रं | त | मा | लः |
प्र | वा | ल | मा | दा | य | सु | ग | न्धि | य | स्य |
य | वा | ङ्कु | रा | पा | ण्डु | क | पो | ल | शो | भी |
म | या | व | तं | सः | प | रि | क | ल्पि | त | स्ते |
ज | त | ज | ग | ग |