वाचि यमो व्रते
(अष्टाध्यायी ३.२.४० ) इति खच्प्रत्ययः। वाचंयमपुरंदरौ च
(अष्टाध्यायी ६.३.६९ ) इति मुम्। तस्य भावस्तत्त्वान्मम प्रणतिं किंचिन्मूर्ध्नः कम्पेन प्रतिगृह्य विमानेन व्यवधानं तोरोधानं तस्मान्मुक्ताम्। अपेतापोढमुक्तपततित- (अष्टाध्यायी २.१.३८ ) इत्यादिना पञ्चमीसमासः। दृष्टिं पुनः सहस्रार्चिषि सूर्ये संनिधत्ते । सम्यग्धत्त इत्यर्थः। अन्यथाऽकर्मकत्वप्रसङ्गात्
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वा | चं | य | म | त्वा | त्प्र | ण | तिं | म | मै | ष |
क | म्पे | न | किं | चि | त्प्र | ति | गृ | ह्य | मू | र्ध्नः |
दृ | ष्टिं | वि | मा | न | व्य | व | धा | न | मु | क्तां |
पु | नः | स | ह | स्रा | र्चि | षि | सं | नि | ध | त्ते |