कर्मण्यण्
(अष्टाध्यायी ३.२.१ ) इत्यण्। एभिर्विशेषणैर्जयशीलत्वं भूतदया कर्मक्षमत्वं च द्योत्यते। सव्यादितरं दक्षिणं भुजं मे मम सभाजने संमाननिमित्ते। निमित्तात्कर्मयोगे
(वा.१४९०)इति सप्तमी। इतः प्राध्वं प्रकृतानुकूलबन्धं प्रयुङ्क्ते। आनुकूल्यार्थकं प्राध्वम्
इत्यमरः (अमरकोशः ३.४.४ ) । अव्ययं चैतत् ॥
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ए | षो | ऽक्ष | मा | ला | व | ल | यं | मृ | गा | णां |
क | ण्डू | यि | ता | रं | कु | श | सू | चि | ला | वम् |
स | भा | ज | ने | मे | भु | ज | मू | र्ध्व | बा | हुः |
स | व्ये | त | रं | प्रा | ध्व | मि | तः | प्र | यु | ङ्क्ते |