सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
पूर्वेति॥ किंच, हे भीरु! यत्र शृङ्गे पूर्वानुभूतं कम्पोत्तरं कम्पप्रधानं तवोपगूढमुपगूहनं स्मरता मया गुहाविसारीणि घनगर्जितानि कथँचिदतिवाहितानि। स्मारकत्वेनोद्दीपकत्वात्ल्केशेन गमितानीत्यर्थः ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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पू | र्वा | नु | भू | तं | स्म | र | ता | च | य | त्र |
क | म्पो | त्त | रं | भी | रु | त | वो | प | गू | ढम् |
गु | हा | वि | सा | री | ण्य | ति | वा | हि | ता | नि |
म | या | क | थं | चि | द्ध | न | ग | र्जि | ता | नि |