सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
गन्धश्चेति॥ यस्मिन् शृङ्गे धाराभिर्वर्षधाराभिराहतानां पल्वलानां गन्धश्च। अर्धोद्गतकेसरं कादम्बं नीपकुसुमं च। स्निग्धामधुराः। शिखइनां बर्हिणाम्। शिखिनौ वह्निबर्हिणौ
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.११४ ) । केकाशअच। त्वया विना मेऽसह्यानि बुभूवुः। नपुंसकमनपुंसकेन-
(अष्टाध्यायी १.२.६९ ) इति नपुंसकैकशेषः॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ |
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ग | न्ध | श्च | धा | रा | ह | त | प | ल्व | ला | नां |
का | द | म्ब | म | र्धो | द्ग | त | के | स | रं | च |
स्नि | ग्धा | श | अ | च | के | काः | शि | खि | नां | ब | भू | वु |
र्य | स्मि | न्न | स | ह्या | नि | वि | ना | त्व | या | मे |
त | त | ज | ग | ग |