मणिबन्धादाकनिष्ठं करस्य करभो बहिः
इत्यमरः। करभ इवोरूयस्याः सा करभोरूः। ऊरूत्तरपदादौपम्ये
(अष्टाध्यायी ४.१.६९ ) इत्यङ्। तस्याः संबुद्धिर्हे करभोरू। मृगवत्प्रेक्षत इति विग्रहः। हे मृगप्रेक्षिणि! तावत्पश्चान्मार्गे लङ्घिताध्वनि दृषअटिपातं कुरुष्व। एषा सकानना भूमिर्विदूरीभवतः समुद्रान्निष्पतति निष्क्रामतीव। विदूर
शब्दाद्विशेष्यनिघ्नाञ्च्विः ॥
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कु | रु | ष्व | ता | व | त्क | र | भो | रु | प | श्चा |
न्मा | र्गे | मृ | ग | प्रे | क्षि | णि | दृ | ष्टि | पा | तम् |
ए | षा | वि | दू | री | भ | व | तः | स | मु | द्रा |
त्स | का | न | ना | नि | ष्प | त | ती | व | भू | मिः |