सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
सेति॥ सा वक्रनखं धारयतीति वक्रनखधारिणी तया वेणुवत्कर्कशपर्वया। अत एवाङ्कुशस्याकार इवाकारो यस्याः सा तया अङ्गुल्या तौ राघवावम्बरे व्योम्नो स्थिता। अम्बुरं व्योम्नि वाससि
इत्यमरः। अतर्जयदभर्त्सयत्। तर्ज भर्त्सने
इति धातोश्चौरादिकादनुदात्तेत्त्वादात्मनेपदेन भाव्यम्। तथापि चक्षिङो ङइत्करणाञ्ज्ञापकादानुदात्तेत्त्वनिमित्तस्यानित्यत्वात्परस्मैपदमूह्यृमित्युक्तमाख्यातचन्द्रिकायाम्-तर्जयते भर्त्सयते तर्जयतीत्यपि च दृश्यते कविषु
इति ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
---|
सा | व | क्र | न | ख | धा | रि | ण्या |
वे | णु | क | र्क | श | प | र्व | या |
अ | ङ्कु | शा | का | र | या | ङ्गु | ल्या |
ता | व | त | र्ज | य | द | म्ब | रे |