तपःसहस्राभ्यां विनीनी
(अष्टाध्यायी ५.२.१०२ ) इति विनिप्रत्ययः। लघुना। त्रिष्विष्टेऽल्पे लघुः
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.३३ ) । तयोरुभयोः कर्मभूतयोः। दर्शनेन यथा प्रीतिमापुः। तथा कमलशोभिनामम्भसां दर्शनेन नापुः। परिश्रमच्छिदां शाखिनां दर्शनेन च नापुः ॥
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ना | म्भ | सां | क | म | ल | शो | भि | नां | त | था |
शा | खि | नां | च | न | प | रि | श्र | म | च्छि | दाम् |
द | र्श | ने | न | ल | घु | ना | य | था | त | योः |
प्री | ति | मा | पु | रु | भ | यो | स्त | प | स्वि | नः |
र | न | र | ल | ग |