सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
प्रबुद्धेति॥ पुनः कीदृशम्? प्रबुद्धे विकसिते पुण्डरीके इवाक्षिणी यस्य त्तम्। दिवसे तु पुण्डरीकमेवाक्षि यस्येति विग्रहः। बालातपनिभमंशुकं यस्य तम्। पीताम्बरधरमित्यर्थः। अन्यत्र, -बालातपव्याजांशुकमित्यर्थः। निभो व्याजसदृक्षयोः
इति विश्वः। प्रकृष्ट आरम्भो योगो येषां ते प्रारम्भा प्रकृष्टोद्योगा योगिनः। तेषां सुखदर्शनम्। अन्यत्र, -प्रारम्भ आदौ सुखदर्शनं शारदं शरत्संबन्धिनं दिवसमिव स्थितम्॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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प्र | बु | द्ध | पु | ण्ड | री | का | क्षं |
बा | ला | त | प | नि | भां | शु | कम् |
दि | व | सं | शा | र | द | मि | व |
प्रा | र | म्भ | सु | ख | द | र्श | नम् |