सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तस्येति॥ चतुर्मूर्ते रामादिरूपेण चतूरूपस्य सतस्तस्य हरेरुदये सति। पौलस्त्याद्रावणाञ्चकिता भीता ईश्वरा नाथा इन्द्रादयो यासां ता दिशश्चतस्रो विरजस्कौरपधूलिभिर्नभस्वद्भिर्वायुभिः। मिषेण। उच्छ्वसिता इव इत्युत्प्रेक्षा। श्वसेः कर्तरि क्तः। स्वनाथशरणलाभसंतुष्टानां दिशामुच्छ्वासवाता इव वाता ववुरित्यर्थः। चतुर्दिगीशरक्षणं मूर्तिचतुष्टयप्रयोजनमिति भावः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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त | स्यो | द | ये | च | तु | र्मू | र्तेः |
पौ | ल | स्त्य | च | कि | ते | श्व | राः |
वि | र | ज | स्कै | र्न | भ | स्व | द्भि |
र्दि | श | उ | च्छ्व | सि | ता | इ | व |