सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
निर्दोषमिति॥ सर्वं जगद्भूलोको निर्दोषं दुर्भिक्षादिदोषरहितम्। आविष्कृतगुणं प्रकटीकृतारोग्यादिगुणं चाभवत्। अत्रोत्प्रेक्षते-गां भुवं गतमवतीर्णं पुरुषोत्तमं विष्णुं स्वर्गोऽप्यन्वगादिव। स्वर्गो हि गुणनान्निर्दोषश्चेत्यागमः। स्वर्गतुल्यमभूदित्यर्थः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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नि | र्दो | ष | म | भ | व | त्स | र्व |
मा | वि | ष्कृ | त | गु | णं | ज | गत् |
अ | न्व | गा | दि | व | हि | स्व | र्गो |
गां | ग | तं | पु | रु | षो | त्त | मम् |