सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
रावणेति॥ स कृष्णो विष्णुः स एव मेघो नीलमेघश्च। विश्रवसोऽपत्यं पुमानिति विग्रहे रावणः। विश्रवः
शब्दाच्छिवादित्वादणि विश्रवसो विश्रवणरवणौ
इत्यन्तर्गणसूत्रेण विश्रवः
शब्दस्य वृत्तिविषये रवणादेशे रावण इति सिद्धम्। स एवावग्रहो वर्षप्रतिबन्धः, तेन क्लान्तं म्लानं मरुतो देवा एव सस्यं तत्। इत्येवंरूपेण वागमृतेन वाक्सलिलेन। अमृतं यज्ञशेषे स्यात्पीयूषे स्यात्पीयूषे सलिले।़मृतम्
इति विश्वः। अभिवृष्याभिषिच्य तिरोदधेऽन्तर्दधे ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० |
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रा | व | णा | व | ग्र | ह | क्ला | न्त |
मि | ति | वा | ग | मृ | ते | न | सः |
अ | भि | वृ | ष्य | म | रु | त्स | स्यं |
कृ | ष | अ | ण | मे | घ | स्ति | रो | द | धे |