सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
कार्येष्विति॥ किंच, एककार्यत्वादावयोरेककार्यत्वाद्धेतोः। कार्येषु कर्तव्येषु विषयेषु वज्रिणेन्द्रेण। अभ्यर्थ्यःइदं कुरु
इति प्रार्थनीयो नास्मि। तथा हि-वातः स्वयमेवाग्नेः सारथ्यं साहाय्यं प्रतिपद्यते प्राप्नोति। न तु वह्निप्रार्थनया। इत्येवकारार्थः। प्रेक्षावतां हि स्वार्थे स्वत एव प्रवृत्तिः, न तु परप्रार्थनया। स्वार्थश्चायं ममापीत्यर्थः॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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का | र्ये | षु | चै | क | का | र्य | त्वा |
द | भ्य | र्थ्यो | ऽस्मि | न | व | ज्रि | णा |
स्व | य | मे | व | हि | वा | तो | ऽग्नेः |
सा | र | थ्यं | प्र | ति | प | द्य | ते |